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कबीर ने धर्म के नाम पर घोटाले का भांडा फोड़ा था

कबीरदास ने ब्राह्मणवाद के पाखण्ड का भाँडा फोड़ा..

संत कहे जाने वाले कबीर ने धर्म और ईश्वर दोनों के पक्ष-विपक्ष में लिखा है ऐसा क्यों आखिर यह विरोधाभाष क्यों?
कभी वह राम नाम जपने को भी कहते है तो कभी वह ग्रंथो के ज्ञान पर भी प्रश्न खड़े करते है तभी तो उन्होंने कहा कि:
"ढाई आखर प्रेम का जो पढ़े वो पण्डित होई"

गुरु कबीर ने उस ज़माने में प्रचलित ईश्वरीय नामों के पक्ष में कुछ साहित्य रचा था, पर लगता है वो साहित्य उनके शुरुआती दिनों का होगा| कोई भी विचारक जब अध्यात्म की खोज शुरू करता है तब वो उस समय की प्रचलित भक्ति में शांति खोजने लगता है, शुरुआत यहीं से होती है|पर जब कहीं भी शांति नहीं मिलती तब अंततः वो सत्य या धम्म को पा ही लेता है| इसीलिए बाद में जब वो जागे होंगे तब उन्होंने जो साहित्य रचा उसे पढ़ने पर हम जान सकते हैं की वो धर्म और ईश्वरवाद के विरोध में है और मानवता के पक्ष में है|यही कारण हो सकता है की कबीर के साहित्य में धर्म के पक्ष और विपक्ष दोनों के स्वर मिलते हैं |

उनकी विचारधारा बौद्ध थी पर वो बौद्ध थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब रविदास, कबीरदास जैसे संत मौजूद थे उन सदियों में भारत से बौद्ध विचारधारा और बौद्ध संस्कृति का दमन किया जा चुका था, तो ऐसे में बौद्ध विचारधारा इन तक कैसे पहुचती, पर ये निश्चित है की अगर बौद्ध विचारधारा उपलब्ध होती तो ये संत बौद्ध ही कहलाये गए होते |भक्ति काल से लेकर जब अंग्रेजों ने भारत में खुदाई कर के बौद्ध अवशेषों को निकला नया पांच रंगी झंडा बनाया तब तक सात सौ साल बौद्ध धम्म भारत में सोया रहा था| ऐसे में  संत कबीर संत रविदास और उस ज़माने के अन्य संतों तक  बुद्ध का सन्देश नहीं पहुंच पाया, पर ये भी तय है की असल बौद्ध विचारधारा और बहुजन संतों की विचारधारा एक ही दिशा में है, मानवतावाद के पक्ष में और धर्म के विरोध में है|
जो जानेगा वो महसूस करेगा और वो मानेगा|

बहुजन विचारधारा को अगर एक वाक्य में कहें तो इसका मतलब है जियो और जीने दो, ईश्वरवाद से भी बड़ा है न्याय, न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं ..
असल में ये जिंदगी का नियम है की “बात का मतलब कोई नहीं समझता  मतलब की बात सभी समझ लेते हैं|” कबीर के साहित्य  में से ऐसा कुछ भी जो हिन्दुओं के हित की बात है वो हिन्दुओं ने चुन ली जो मुस्लिमों के हित की बात है वो मुस्लिमों ने चुन ली और वही बाजार में उपलब्ध है | और जो उनके हित की बात नहीं वो छोड़ दी|जब दोनों पक्षों का कबीर साहित्य जोड़ कर पड़ते हैं तो हम पाते हैं की कबीर न हिन्दू थे न मुस्लमान वो तो मानवतावादी थे| ..
नीचे दिए हुए कबीर के लेखन से हम जान सकते हैं की उनकी विचारधारा दोनों धर्मो से दोनों से अलग है|

कबीर के दोहे:
कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।
भला हुआ मोरी गगरी फूटी,
मैं पनियां भरन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे
मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे
भला हुआ मोरी  माला टूटी
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम
राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम
मोरे सिर से टली बला… ।।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीरा बहरा हुआ खुदाय
हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई
अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये
हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर
हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर
कबीरा वाको नाम फ़कीर….
दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए
घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए
चाकी चाकी…..
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।।
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए
जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।।
हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए
साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए ।
माटी कहे कुम्‍हार से तू का रोधत मोए
एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

जातिवाद / पाखंडवाद पर प्रहार:
सद्गुरु कबीर साहेब की अन्धविश्वास, पाखंड, भेदभाव, जातिप्रथा, पर करारी चोट की थी जैसे-
” जो तूं ब्रह्मण , ब्राह्मणी का जाया !
आन बाट काहे नहीं आया !! ”– कबीर
अर्थ- अपने आप को ब्राह्मण होने पर गर्व करने वाले ज़रा यह तो बताओ की जो तुम अपने आप की महान कहते तो फिर तुम किसी अन्य रास्ते से जाँ तरीके से पैदा क्यों नहीं हुआ ? जिस रास्ते से हम सब पैदा हुए हैं, तुम भी उसी रास्ते से ही क्यों पैदा हुए है ?)
कोई आज यही बात बोलने की ‘हिम्मंत’ भी नहीं करता और कबीर सदियों पहले कह गए। हमे गर्व हैं की हम उस महान संत के अनुयाई हैं। ऐसे महान क्रांतिकारी संत को कोटी कोटि नमन!
“लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार !!”
(अर्थ – आप जो भगवान् के नाम पर मंदिरों में दूध, दही, मख्कन, घी, तेल, सोना, चाँदी, हीरे, मोती, कपडे, वेज़- नॉनवेज़ , दारू-शारू, भाँग, मेकअप सामान, चिल्लर, चेक, केश इत्यादि माल जो चढाते हो, क्या वह बरोबर आपके भगवान् तक जा रहा है क्या ?? आपका यह माल कितना % भगवान् तक जाता है ? ओर कितना % बीच में ही गोल हो रहा है ? या फिर आपके भगवान तक आपके चड़ाए गए माल का कुछ भी नही पहुँचता ! अगर कुछ भी नही पहुँच रहा तो फिर घोटाला कहा हो रहा है ? ओर घोटाला कौन कर रहा है ?
सदियों पहले दुनिया के इस सबसे बड़े घोटाले पर कबीर की नज़र पड़ी | कबीर ने बताया आप यह सारा माल ब्राह्मण पुजारी ले जाता है ,और भगवान् को कुछ नहीं मिलता, इसलिए मंदिरों में ब्राह्मणों को दान करना बंद करो|
In Association with Amazon.in आज के शिक्षित कहे जाने वाले एंव बड़ी-बड़ी डिग्रियों के मालिको के पास क्या वह ज्ञान है जो कबीर के पास था?
बड़े-बड़े अधिकारी, राजनेता कोई भी कार्य का आरम्भ अनपढ़ ब्राह्मणों के द्वारा करते है क्या यह ज्ञान है?
मानसिक गुलामी ईश्वर, धर्म ग्रंथो के नाम पर ही फैली है जब तक इस कोरे- काल्पनिक अन्धविश्वास का जाल नही ध्वस्त होगा तब तक अनपढ़ पाखण्डी आसाराम जैसे बलात्कारी मौज उड़ाते रहेंगे।
मूर्खो की तरह निर्मल बाबा की जय करते रहेंगे।
अज्ञान को महापुरुषो के संघर्ष भरे इतिहास से ही खत्म होगा।
(





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3 comments:

  1. लाख बुराइयां मोरे मनवां,आलस मोरा मीत।
    कौन उतारै खाल बुराइयां, लगा नमक कोई लाय।
    ना मैं समझूं, सब जग समझै, आगै कौनय आय।
    बुराइयां दूरै कौन भगाय, जौ आलस मोरा मीत।

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  2. इतिहास के एक लंबे कालखंड में बौध लोग चाहे अदृिश्य रहे हों. बौधमत हमेशा बना रहा. कबीर के समय में सिद्ध और नाथपंथ बौधमत का ही विस्तार थे.

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  3. Follower of Jainism.. श्रमण भगवान महावीर... अहिंसा परमो धर्म16 November 2018 at 14:37

    महोदय, जैनिजम श्रमण परंपरा (श्रमण भगवान महावीर जो जैनिजम के चौबीसवें तीर्थंकर है एवं 'अहिंसा परमो धर्म' सिद्धांत सारे विश्व को दिया) को ही फॉलो करके सिद्धार्थ गौतमजी ने middle path बुद्धिजम लोगों के सामने रखा। सम्राट अशोक के दादाश्री मौर्य साम्राज्य के जनक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयायी थे (ref: श्रवणबेलगोला)।

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