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ईश्वर के संबंध में बुद्ध के विचार..

ईश्वर के संबंध में बुद्ध के विचार :
इस संसार को किसने बनाया?
यह एक सामान्य प्रश्न है.
इस दुनियां को ईश्वर ने बनाया.
यह वैसा ही सामान्य सा उत्तर है.
इस सृष्टि रचयिता के कई नाम प्रचलित हैं, लेकिन तथागत बुद्ध ने ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता के रुप में स्वीकार नहीं किया.
बुद्ध ने कहा, “ईशवराश्रित धर्म कल्पनाश्रित है, इसलिये ऐसे धर्म का कोई उपयोग नहीं है.
बुद्ध ने इस प्रश्न को ऐसे ही नहीं छोड़ दिया. उन्होंने इस प्रश्न के नाना पहलुऒं पर विचार किया है.
बुद्ध का तर्क था कि ईश्वर का सिद्धान्त सत्याश्रित नहीं है. तथागत बुद्ध ने वासेट्ठ और भारद्वाज के साथ हुई बातचीत में स्पष्ट किया है.
एक बार वासेट्ठ और भारद्वाज में एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि सच्चा मार्ग कौन सा है और झूठा कौन सा है? इस समय तथागत बुद्ध, भिक्षु संघ के साथ कौशल जनपद में मनसाकत नामक गाँव में अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठहरे थे. वासेट्ठ और भारद्वाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे. जब उन्होंने सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आये हैं तो वे उनके पास गये और दोनों ने तथागत बुद्ध से उक्त के संबंध में अपना दृष्टिकोण रखने का निवेदन किया.
भारद्वाज ने कहा, “तरुक्ख का दिखाया मार्ग सीधा-साधा है, वह मुक्ति का सीधा पथ है और जो इसका अनुसरण कर लेता है उसे वह ब्रह्मा से मिला देता है.”
वासेट्ठ ने कहा, “हे गौतम, बहुत से ब्राह्मण बहुत से मार्ग सुझाते हैं – अध्वय्य ब्राह्मण , तैत्तिरिय ब्राह्मण, कंछोक ब्राह्मण तथा भीहुवर्गीय ब्राह्मण. वे सभी जो इनके बताये पथ का अनुकरण करते हैं, उसे ब्रह्मा से मिला देते हैं. जिस प्रकार किसी गाँव या नगर के पास अनेक रास्ते होते हैं, किन्तु वे सभी उसी गांव में पहुंचा देते हैं, उसी तरह से ब्राह्मणों द्वारा दिखाये सभी पथ ब्रह्मा से जा मिलते हैं.”
तथागत ने प्रश्न किया, “तो वासेट्ठ तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं?
वासेट्ठ बोला, “श्रमण गौतम, हाँ, मेरा यही मानना है.”
“लेकिन वासेट्ठ ! क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों के गुरुओं में कोई एक भी ऐसा है, जिसने ब्रह्मा का आमने सामने दर्शन किया हो?”
“गौतम ! निश्चय ही नही !”
“तो ब्रह्मा को किसी ने नहीं देखा? किसी को ब्रह्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ?”
वासेठ्ठ बोला, “हाँ ऐसा ही है.”
“तब तुम कैसे यह मान सकते हो कि ब्राह्मणों का कथन सत्य आश्रित है?”
“वासेट्ठ ! जैसे कोई अंधों की कतार हो, न आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो, न बीच में और न पीछे चलने वाला अंधा. इसी तरह वासेट्ठ ! मुझे लगता है कि ब्राह्मणों का कथन सिर्फ़ अंधा कथन है. न आगे चलने वाला देखता है, न बीच वाला और न पीछे वाला देखता है. इन ब्राह्मणों की बातचीत केवल उपहास्यपद है, शब्द मात्र जिसमें कोई सार नही.”
“वासेठ क्या यह ऐसा नहीं है कि किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो जिसे उसने देखा तक नहीं हो?”
वासेट्ठ बोला – “हां यह ऐसा ही है.”
“वासेट्ठ! तब तुम यह बताओ कि यह कैसा होगा कि जब लोग उस आदमी से पूछेगें कि जिस सुन्दरतम स्त्री से प्रेम करने की बात करते हो, वह अमुक स्त्री कौन है? कहां की है? आदि”
सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुये तथागत ने भारद्वाज और वासेट्ठ से कहा, “मित्रों ! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था, वह अपने बारे मे सोचने लगा कि मैं ब्रह्मा हूँ, विजेता हूँ, निर्माता हूं, अविजित हूँ, सर्वाधिकारी हूँ, मालिक हूँ, निर्माता हूँ, रचयिता हूँ, व्यवस्थापक हूँ, आप ही अपना स्वामी हूँ और जो हैं तथा वे जो भविष्य में पैदा होने वाले हैं, उन सबका पिता हूँ. मुझसे यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं.”
“तो इसका यह मतलब हुआ न कि जो अब है और जो भविष्य में उतपन्न होने वाले हैं, ब्रह्मा सबका पिता है?”
“तुम्हारा कहना है कि यह जो पूज्य, विजेता , अविजित , जो है तथा जो होगें उन सबका पिता, जिससे हमारी उत्पति हुई है – ऐसा जो यह ब्रह्मा है, वह स्थायी है, सतत रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तन-शील है और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा. तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है, जो ब्रह्मा के यहाँ से आये हैं, सभी अनित्य क्यों है? परिवर्तनशील क्यों हैं? अस्थिर क्यों हैं? अल्पजीवी क्यों हैं? और मरणाधर्मी क्यों हैं?”
इसका वासेट्ठ के पास कोई उत्तर नहीं था.
तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से संबधित था. “यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान और सृष्टि का पर्याप्त कारण है, तो फ़िर आदमी के दिल में कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नहीं हो सकती, उसे कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं रह सकती, न उसके मन में कुछ करने का संकल्प ही पैदा हो सकता है. यदि वह ऐसा ही है तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया?”
इसका भी वासेट्ठ के पास कोई उत्तर नहीं था.
स्वरुप है तो आदमी हत्यारे, चोर, व्यभिचारी, झूठे, चुगलखोर, लोभी, द्वेषी, बकवादी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं?
क्या किसी अच्छे, भले ईश्वर के रहते यह संभव है? ”
तथागत का पाँचवां तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ , न्यायी , और दयालु होने से संम्बधित था.
“यदि कोई ऐसा महान सृष्टि-कर्ता है जो न्यायी भी है और दयालु भी है, तो संसार मे इतना अन्याय क्यों हो रहा है?” तथागत बुद्ध का प्रश्न था.
उन्होनें कहा, “जिसके पास भी आंख है वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता है. ब्रह्मा अपनी रचना सुधारता क्यों नही है? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकने वाला नहीं तो उसके हाथ ही ऐसे क्यों हैं कि शायद वह किसी का कल्याण करते हो? उसकी सारी की सारी सृष्टि दु:ख क्यों भोग रही है? वह सभी को सुखी क्यों नही रखता है? चारों ओर ठगी, झूठ और अज्ञान क्यों फ़ैला हुआ है? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार ले जाता है? सत्य और न्याय क्यों पराजित हो जाते हैं? मैं तुम्हारे ब्रह्मा को अन्यायी मानता हूँ जिसने केवल अन्याय देने के लिये इस जगत की रचना की है.”
“यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है जो उन्हें सुखी और दुखी बनाता है और जो उनसे पाप पुण्य कराता है तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सना हुआ है या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नहीं है या ईश्वर नेक और न्यायी नहीं है अथवा ईश्वर अन्धा है.”
ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध उनका अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. तथागत बुद्ध के अनुसार धर्म की धुरी ईश्वर और आदमी का सम्बन्ध नहीं है बल्कि आदमी का आदमी के साथ संम्बन्ध है. धर्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमी के साथ कैसे व्यवहार करे ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सकें.
तथागत की दृष्टि में ईश्वर सम्यक दृष्टि के मार्ग में अवरोधक है. यही कारण है कि बुद्ध रीति-रिवाजों, प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे. तथागत का मानना था कि प्रार्थना कराने की जरुरत ने ही पादरी, पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग है जिसने अन्धविश्वास को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध किया.
तथागत का ईश्वर अस्तित्व के विरुद्ध आखिरी तर्क प्रतीत्य-समुत्पाद के अन्तर्गत आता है. इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, यह मुख्य प्रश्न नहीं है और न ही कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है या नहीं? असल प्रश्न है कि ईश्वर ने सृष्टि किस प्रकार रची? प्रश्न महत्वपूर्ण यह है कि ईश्वर ने सृष्टि भाव ( =किसी पदार्थ ) में से उत्पन्न की या अभाव ( = शून्य ) में से?
यह तो एकदम विश्वास नहीं किया जा सकता कि ‘कुछ नही’ में से कुछ की रचना हो गई. यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना कुछ से की है तो वह कुछ – जिसमें से नया कुछ उत्पन्न किया गया है – ईश्वर के किसी भी अन्य चीज के उत्पन्न करने के पहले से ही चला आया है. इसलिये ईश्वर को उस कुछ का रचयिता नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि वह कुछ पहले से ही अस्तित्व में चला आ रहा है.
यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने कुछ में से उस चीज की रचना कर दी है जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का आदि-कारण नहीं कहला सकता.
तथागत बुद्ध का यह आखिरी तर्क ऐसा था कि जो ईश्वर विश्वास के लिये सर्वथा मारक था और जिसका बासेट्ठ और भारद्वाज के पास कोई जवाब नहीं था.




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2 comments:

  1. प्रश्न का जबाब थोङा संक्षिप्त और स्पष्ट देते तो और अच्छा रहता,ताकि आम आदमी जल्दी समझ सके. वैसे महामना बुद्ध के विचार ही विश्व का सर्वोत्तम विचार है जिससे हमारा विकास संभव है. ऐसा अर्जक संघ के संस्थापक महामना रामस्वरूप वर्मा का भी विचार था।

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    1. विस्तारपूर्वक चिंतन से ही मानसिक गुलामी से मुक्त हुआ जा सकता है।
      उपेन्द्र जी आपने जो सुझाव दिए हम उसके लिए आभारी है।

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