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उठो! तुम सोए हुए शेर हो उठो और विद्रोह करो - भगत सिंह

आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की बहुत-बहुत मंगलकामनाए-बधाई



हमे ख़ुशी है की आज ही के दिन भारत सवतंत्र हुआ इस महान दिवस को प्रत्येक भारतीय को भूलना नही चाहिए दिवाली,होली,ईद,क्रिसमसडे आदि अन्य सभी धार्मिक पर्वो से बड़ा यह हम सबका प्रत्येक भारतीय का महापर्व है इसलिए 15 अगस्त और गणतंत्र दिवस को राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है।

कई लाखो शहीदों के कारण देश विदेशी शासको से आजाद हुआ हमे उन अनगिनत महान विभूतियो को हमेशा नमन करना चाहिए जिनकी बदौलत हम आजाद भारत में जी रहे है।

आजादी के 70 वर्षो में हमने बहुत कुछ पाया है देश विकसित तो नही हुआ किन्तु भारत विश्व की आर्थिक शक्तियो में से एक है यह नकारा नही जा सकता है। सुरक्षा की दृष्टि में भी भारत शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में विश्व के सामने है. विज्ञान, शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य में भी हमारे कदम बढ़ रहे है, हमे निराश नही होना चाहिए. यदि हम आलोचक की दृष्टि से देश की स्थिति पर नजर दौड़ाए तो निश्चित रूप से हम देखेंगे की देश को जितना सक्षम होना चाहिए था उतना हम आज सफल या सक्षम नही हो पाये है यह तो कटु सत्य है फिर भी हम आगे बढ़ रहे है यह आशाजनक भी है।

देश की आजादी के कई मायने है

हमे इस ख़ुशी के मौके पर चिंतन करना आवश्यक है। क्योकि हम पिछले 70 वर्षो से यह राष्ट्रीय पर्व तो मना रहे है किन्तु हकीकत से मुँह भी छुपा लेते है देश में कुपोषण के कारण हर वर्ष लाखो बच्चे, नवजवान, बुजुर्ग असमायिक मृत हो जाते है। बाल श्रम रोकने के लिए संविधान में कठोर प्रावधान होने के वावजूद धड़ल्ले से मासूम कठोर परिश्रम करते है बच्चपन खेल, शिक्षा से महरूम हो रहा है। उसी तरह महिलाओ को संविधान द्वारा सशक्त नागरिक बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रावधान किये है जो गणतंत्रत लागू होने से पूर्व नही थे। फिर भी हर वर्ष करोड़ो महिलाये उत्पीड़न, अत्याचार की शिकार हो रही है लिंग अनुपात में बहुत अंतर बढ़ रहा है नवजात शिशुओ की भ्रूण हत्यायें होती है। यह एक ज्वलन्त और चिंतनीय विषय है। भारतीय संविधान ने देश को धर्म निरपेक्ष घोषित किया है किन्तु आज भारत में धर्म के नाम पर हर वर्ष कई घोर निंदनीय, दुखित कर देने वाले दंगे-फसाद हो जाते है। भारतीय संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मानजनक एंव स्वतन्त्र जीवन जीने का प्रावधान करता है किन्तु आज के आधुनिक युग में भी इस देश में रोज जातीय हिंसा होती रहती है जिसे जान कर कलेजा काँप जाता है नफरत की इस जड़ को नष्ट करने के लिए संविधान ने विशेष कई प्रावधान किये है उसी का परिणाम है कि देश में कठोर कानून बने ताकि शोषित वर्गो (अनुसूचिति जाति -जनजाति, पिछड़ावर्ग) के साथ अमानवीय व्यवहार बन्द हो किन्तु संविधान और कानून को रोज कई जातिवादी आतंकवादी अँगूठा दिखाते है और बेख़ौफ़ जातिवादी मानसिकता का परिचय देते हुए जातिवादी आतंकवाद फैलाते है। दयनीय स्थिति कृषको की भी है जबकि भारत कृषि प्रधान देश कहलाता है हर वर्ष लाखो किसान आत्म हत्या करने के लिए मजबूर हो रहे है उन्हें आर्थिक मदत देने के लिए सरकारो के पास धन का अभाव रहता है जबकि देश के मुठ्ठी भर पूंजीपतियो को अरबो रूपये की सहायता की जाती है। भारतीय संविधान मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रावधान करता है किन्तु पूंजीवाद को सरकार स्वंय सरंक्षण देती है किसी भी देश की तरक्की के लिए उद्योगों का होना जरूरी है किन्तु कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसानो के प्रति सरकार का रवैया निराशाजनक है। सरकारी कर्मचारियों की औसत मासिक आय 50000 रु है तो निजी संस्थानो में कार्य करने वाले श्रमिको की औसत मासिक आय लगभग 10000 रु से भी कम है जबकि शासकीय नौकरियां प्रतिदिन घट रही है और पूंजीपति उत्साहित हो कर निजी उद्योग लगा रहे है और श्रमिको-कर्मचारियों को मनमाने ढंग से वेतनमान देते है। गौरतलब हो की इन संस्थानो में कार्य करने वालो के हित में आवाज कोई राजनैतिक दल या नेता नही उठाते निजीकरण का यही आलम रहा तो देश में शासकीय नौकरी लगभग खत्म हो जायेगी संविधान समाजिक रूप से शोषित वर्गो को नौकरियों में विशेष अवसर की सुविधाएं देती है किन्तु निजी संस्थानो में संविधान के यह प्रावधान लागू नही है सायद यह आरक्षण समाप्त करने का एक बेमिशाल षड्यंत्र है। उसी तरह शिक्षा में भी निजीकरण हो चूका है देश में एक शिक्षा बोर्ड नही है जबकि संविधान सभी वर्गो के बच्चों को मुफ़्त एंव समान शिक्षा देने हेतु प्रावधान करता है। आज गरीब या शोषित वर्गो के बच्चे स्कुल में पढ़ने नही थाली लेकर भोजन करने जाते है। और भी कई गम्भीर समस्याएँ जिनकी चर्चा हम अभी नही कर रहे है जैसे भ्रष्ट्राचार, महंगाई, सीमा पार आतंकवाद आदि।

इन सभी समस्याओ का मुख्य कारण धार्मिक, समाजिक एंव प्राचीन राजनैतिक मानसिकता है।

बहुत से लोग संविधान-कानून की आलोचना करके सच्चाई से दूर-दूर तक रूबरू नही हो पाते है जबकि संविधान देश के प्रत्येक नागरिको की सुरक्षा-स्वतन्त्रता के लिए प्रावधान करता है कानून भी शख्त है फिर भी देश आंतरिक रूप से अशांत एंव असुरक्षित है। भारत में संविधान 26 जनवरी 1950 में लागू तो हो गया था किन्तु देश में धार्मिक वर्ग संविधान को नही धार्मिक व्यवस्था, ग्रंथो को महत्वपूर्ण मानते है। यही कारण है की स्त्रियों को आज भी मन्दिर प्रवेश पर प्रतिबन्ध है उन्हें ताड़न की अधिकारी समझा जाता है तभी तो नवजात शिशुओ का गर्भपात किया जाता है सिर्फ लिंग के आधार पर यही गर्भपात करने वाले नव दिन भूखे-प्यासे रह कर अपने आपको धार्मिक स्वंय घोषित करते है। स्त्रियों के बाद बारी आती है शोषित वर्गो की उन्हें आज भी हेय द्रष्ट्रि से देखा जाता है आपने गुजरात का ऊना काण्ड सुना ही होगा। और उसके बाद भारत के स्वंय घोषित मजबूत प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी का शर्मसार कर देने वाला बयान भी सुना होगा उन्होंने कहा था कि "दलितों(SC,ST,OBC) को मत मारो मारना ही है तो मुझे गोली मार दो।" धर्म के ठेकेदारो के सामने देश का प्रधानमंत्री हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा रहा है इससे ज्यादा शर्म की और क्या बात हो सकती है कारण धर्म के प्रति मानसिक गुलामी है। क्या इन जातिवादी आतंकवादियो को सख्त-सख्त कानून सजा प्रधानमंत्री के आदेश से नही दी जा सकती? मिडिया भी जातीय हिंसा करने वालो को दबंग कहता है। रोहित वेमुला की असामयिक मृत्यु के जिम्मेदार लोग आज सर उठा कर घूम रहे है सरकार मौन है, पुरे देश में जातीय हिंसा चरम पर है क्या सरकार और पुलिस से मजबूत है यह कथित धार्मिक लोग? धार्मिक उन्माद को धार्मिक एंव राजनैतिक लोग भड़का कर वोट की राजनीति करते है इसी कारण पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है। गरीब कृषक की जान की कोई कीमत नही है किन्तु पूंजीपति को कोई हानि न हो इसका ख्याल सरकारें बराबर रखती है क्योकि वे सामन्तवादी,पूंजीवादी पुरानी मानसिकता से मुक्त नही है। अन्धविश्वास को सरकारी मान्यता है देश के राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक ढोंगी, बलत्कारी, संविधान विरोधी धर्म गुरुओ के चरणों में शीश नवाते है आशीर्वाद लेते है। वे खुलेआम संविधान विरोधी, गैरकानूनी, अमानवीय फतवे, निर्देश जारी करते है मुठ्ठी भर आम लोग विरोध करते है और सत्ताधारी मौन रहते है आखिर वे मानसिक गुलाम जो ठहरे। टीवी पर सुबह शाम भविष्यणी, प्रवचन करने वाले बाबाओ की दूकान चलती है देश की जनता में वैज्ञानिक सोच कैसे विकसित होगी।
किन्तु सरकार इन ज्योतिषियों से कभी यह प्रश्न नही करती की प्राकृतिक आपदा या आतंकवादी घुसपैठ की भविष्यवाणी क्यों नही की?
सुरक्षा यन्त्र बेचे जाते है, मनोकामना पूरी करने के लिए मन्त्रोच्चार वाले यन्त्र बिकते है कभी किसी राजनैतिक नेता ने इसका विरोध नही किया गरीब,अनपढ़ बेचारे खुले आम लूटते है इनसे किन्तु सरकार ने यह कथित सुरक्षा यन्त्र सीमा पर तैनात सुरक्षा बलो के लिए नही खरीदी? नेता अपनी सुरक्षा में कौनसा कवच रखते है?
महंगाई, भ्रष्ट्राचार, काला धन का मुद्दा उठाने वाले आज कल व्यपारी बन गए है सरकार भी उनके चरणों में जाकर नाक रगड़ती है। अलोम विलोम करते-करते पुत्र पैदा करने की दवा बेच रहे है क्या यह लिंग भेद नही है?

जब तक देश की सरकार चलाने वाले कर्णधार धर्म ग्रंथो या धर्मीक भावना से ऊपर उठ कर आचरण नही करते तब तक देश चहुमुखी एंव खुशहाल नही हो सकता जहां तक सीमा पार आतंकवाद का सवाल है तो वह मुद्दा उतना गम्भीर नही है जितना देश के आंतरिक आतंकवादी जातिवादी समस्या है।

बाबासाहेब अम्बेडकर ने आजादी के असली महत्व को बखूबी समझा था।

बाबा साहेब, सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं। वे जमींदारों की आर्थिक गुलामी और ऊँची जातियों की सामाजिक गुलामी से शोषितो की मुक्ति के भी अक्षय प्रतीक हैं। पी.एच.डी. और डी.एस.सी. होते हुए भी उन्हें अपने कार्यस्थल पर अपमान सहना पड़ा। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि राजनैतिक स्वतंत्रता तब तक अर्थहीन रहेगी जब तक उसके साथ-साथ सामाजिक बदलाव नहीं होता, जब तक शूद्रों और महिलाओं को गुलामी से मुक्ति नहीं मिलती। राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम किया।
अम्बेडकर ने स्वाधीनता आंदोलन के लक्ष्यों में सामाजिक परिवर्तन को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे आश्चर्य कर देने वाली मेधा के धनी थे और उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य, शोषित वर्गो की बेहतरी था। वे निरंतर हमारे देश की जाति प्रथा पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे। उन्होंने इस देश में राजनैतिक व सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को गति दी। यह अकारण ही नहीं था कि वे कमजोर वर्गों के संघर्ष के प्रतीक और अगुवा थे। और यही कारण है कि देश के सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य में उनकी भूमिका को नकारने या कम करके प्रस्तुत करने की कोशिशें हो रही हैं। चूंकि उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज करना संभव नहीं है। इसलिए प्रयास किया जा रहा है कि उन्हें देवता बनाकर मंदिर में प्रतिष्ठापित कर दिया जाये और फिर उनके प्रिय सिद्धांतों और आदर्शों को कचरे की टोकरी में फेक दिया जावे। उनके योगदान के महत्व को घटा कर प्रस्तुत करने के भी योजनाबद्ध प्रयास हो रहे हैं।

जातिवादी आतंकवाद पर संघ आज भी मौन है पूर्व में भी मौन था!

अम्बेडकर के चावदार तालाब, कालाराम मन्दिर और मनुस्मृति दहन को नेतृत्व प्रदान कर सामाजिक सुधार के लिए उग्र आंदोलनों की शुरुआत की। आर.एस.एस. को तो जाने दीजिए उच्च जाति के किसी भी संगठन ने इन आंदोलनों का समर्थन नहीं किया। केवल मन्दिर में प्रवेश के प्रश्न पर कुछ साम्प्रदायिक लोगों ने अम्बेडकर को मरियल-सा समर्थन दिया था।
बहरहाल, देखिए हिन्दुत्व के प्रमुख विचारक सावरकर के पास कहने के लिए क्या है: 'मनुस्मृति वह धर्म-ग्रन्थ है जो कि हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद पूजा के सर्वाधिक योग्य है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्वृळति, रीति-रिवाजों, विचार एवं व्यवहार का आधार रहा है। यह पुस्तक सदियों से हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक एव पारलौकिक गति को संहिताबद्ध करती रही है... आज मनुस्मृति हिन्दू कानून है।' (वी.डी. सावरकर समग्र में 'वूमेन इन मनुस्मृति', हिन्दी में सावरकर की किताबों का संकलन, प्रभात, नई दिल्ली, 2002, पृ. 416)
वैषम्य पर पुनः गौर कीजिए: आम्बेड़कर मनुस्मृति को जलाते हैं, सावरकर उसकी गौरव अभ्यर्थना करते हैं। वस्तुतः आज की तारीख तक साम्प्रदायिक लोगों के एक भी महत्वपूर्ण नेता ने कभी भी मनुस्मृति को शोषितो एवं स्त्रियों के लिए उत्पीड़क होने के कारण खारिज या उसकी आलोचना नहीं की है।
अनु. जातियो- जनजातियो से जुड़े मुद्दों पर हिन्दुत्ववादी ताकतों का रवैया दोहरा रहा है। चुनावी या दूसरे उद्देश्यों के लिए इन वर्गो(शुद्रो) को अपनी ओर मिलाने के लिए हिन्दुत्ववादी ताकतें सतही तौर पर इनकी की मॉंगों का समर्थन करती हैं, वहीं गहरे स्तर पर वे इन मॉंगों को मरोड़कर प्रस्तुत करती हैं। या उनकी जड़ खोदने का काम करती हैं। नौकरियों एवं शैक्षणिक सुविधाओं के लिए आरक्षण इसी प्रकार का एक मुद्दा है। आधिकारिक रूप से संघ परिवार आरक्षण का विरोध नहीं करता लेकिन वह इसके विरुद्ध कानाफूसी अभियान चलाता है। जब वी.पी. सिंह की सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशोें के क्रीयान्वयन की घोषणा की तो साम्प्रदायिक ताकतों ने इसका आधिकारिक रूप से विरोध न करते हुए भी मुद्दे की हवा निकालने के लिए राम मन्दिर आंदोलन को तेज कर दिया।

यदि हमे असली हमे असली आजादी चाहिए तो हमारे महापुरुषो के विचारो को गहराई से प्रत्येक नागरिक को चिंतन करना होगा।

भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचारो का उल्लेख कर यह विचार समाप्त करता हूँ।

उठो!
तुम 'अछूत' भाइयों, दलित मजदूरों
उठो और अपने इतिहास को जानो।
तुम सच्चे सर्वहारा संगठित हो।
तुम्हारे पास खोने के लिए बेड़ियों के
सिवाय कुछ नहीं।
विद्रोह में उठ खड़े हो!
धीरे-धीरे सुधारों से कुछ मिलने वाला नहीं,
सामाजिक व्यवस्था का क्रान्तिकरण करो,
बगावत करो और उथल-पुथल मचा दो,
मुक्ति तुम्हारा ध्येय है!
उठो!
राष्ट्र की
वास्तविक शक्ति एवं आधार
तुम सोए हुए शेर
उठो और विद्रोह करो।
- भगत सिंह

आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की पुनः बधाई आशा है की धर्म,जाति से ऊपर उठ कर हम भारतीय होने में गर्व करेंगे।
जय भीम-जय भारत!

√ सुरेश पासवान, राष्ट्रीय महासचिव, वी लव बाबासाहेब समाजिक संगठन


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