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'एक देश, एक बाजार, एक कर' सही है तो 'एक देश, एक जाति' कैसे गलत है?


30 जून और 1 जुलाई के बीच मध्य रात्रि से गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानि कि वस्तु एवं सेवा कर कानून को पूरे देश में लागू कर दिया गया है। वस्तु एवं सेवा कर को लगाए जाने की कयास करीब 15 वर्षों से की जा रही है लेकिन सत्ता की सफारी पर सवार केंद्र एवं राज्य सरकारें इस संदर्भ में दृढ इच्छा से कोई मजबूत कदम नहीं उठा रहे थे। खैर अब वस्तु एवं सेवा कर कानून पूरे देश में लागू हो चुका है। दृढ़ इच्छा ना होने के साथ-साथ इसके पीछे एक और भी वजह यह थी कि इसके पहले कि सरकारें जीएसटी को इतनी निरंकुशता से आम जनता के बीच लागू नहीं कर रहे थे क्योंकि वह इसकी नाकामियों से भी भली भांति वाकिफ थे इसलिए वे आम जनता के हित, कमजोर- मजदूर वर्ग के दाल रोटी पर हमला एवं छोटे व मध्यम व्यापारियों के व्यापार पर आघात नहीं कर रहे थे। इस चीज को भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व भी भली भांति समझ रही थी और यही वजह है कि भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए यूपीए सरकार के इस फैसले का तीव्र विरोध किया था। आखिर क्या वजह है कि कल तक जीएसटी के खिलाफ राग अलापने वाली भाजपा आज जीएसटी कानून की इतनी हितैषी हो गई है?

बीड़ी पर टैक्स की दर को बढ़ा दिया गया है लेकिन पेट्रोल, डीजल, एविएशन टर्बाइन फ्यूल जैसे पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी दायरे से बाहर रखा गया है। अब जीएसटी लागू हो जाने से रेस्तरां में खाना, मोबाइल बिल का भुगतान, क्रेडिट कार्ड, बीमा कराना, कोचिंग क्लास, 1000 से अधिक कपड़े एवं बैंकिंग सेवाएं आदि सब महंगे हो गए हैं। पहले मोबाइल पर सर्विस टैक्स 14.5% था अब 18% हो गया है। मनुवाद को परोसते हुए शिक्षा में निजीकरण से वैसे ही गरीब परिवारों को शिक्षा से महरूम किया जा रहा है। सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा के गुणवत्ता की दर बहुत ही चिंताजनक है। कोचिंग संस्थानों पर अधिक जीएसटी दर बढ़ाकर अपने भविष्य को संवारने के ललक में जूझ रहे छात्रों के उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया है। सर्विस सेक्टर में 18% टैक्स बढ़ने से मध्यम वर्ग के व्यापारियों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा जिसकी अंततः वसूली उपभोक्ताओं के जेब से ही होगी। भारत जैसे देश जहां आम जनों में तकनीकी साक्षरता की दर बहुत ही नकारात्मक और तकनीकी ढांचा बेहद ही अनियमित एवं अकुशल है, ऐसे में तकनीकी कुशलता पर केंद्रित जीएसटी कानून का लागू हो पाना चिंता का विषय है। चार्टेड अकाउंटेंट मासिक रिटर्न फाइल करने के लिए मनमाना फीस वसूल रहे हैं। आम जनता में नोटबंदी की तरह ही सरकार इस चिन्तनहींन फैसले से निराशा का माहौल छाया हुआ है। जनता अभी भी 15 लाख और काले धन का वापस होने, खुलासा होने का इंतजार कर रही है।

पूंजीपतियों को खुश करने के लिए सरकार आए दिन बेतुकी फैसले ले रही है। बिकाऊ मीडिया मोदी चालीसा पढ़ पढ़कर देश की जनता को खुश करने में लगी हुई है ताकि लोग असली मुद्दों पर ना आ सकें। भारत विभिन्नताओं का देश है। जम्मू कश्मीर की माँग कुछ और हो सकती है तो उत्तर प्रदेश की कुछ और। मुद्रा का मूल्य भी व्यक्ति एवं समाज के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। लेकिन भाजपा और संघ के लोग 'एक राष्ट्र, एक संस्कृति और एक विधान' की बात करते हैं। जीएसटी कानून को 'एक देश, एक बाजार, एक कर' के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। एकात्मकता की बात करना ठीक है लेकिन किसी भी समाज में निरपेक्ष एकात्मकता पूर्णतः असम्भव है। 'एक देश, एक बाजार, एक कर' की पहल तभी संभव है "जब एक जैसा देश, एक जैसा बाजार, एक जैसे लोग हों।" समानता समान लोगों में होती है। आसमान स्थितियों में रहने वाले लोगों को समान कानूनी दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। जीएसटी कानून लागू करना गलत नहीं है लेकिन वर्गीकरण के सिद्धांत एवं बेहतर समीक्षात्मक तैयारी को नज़रंदाज़ करना गलत है। सरकार का कहना है कि 'टैक्स में टैक्स' नहीं इसलिए एक टैक्स होना चाहिए। मैं सरकार से पूंछना चाहता हूं कि इस आधार पर वह यह बताए कि 'मानव जाति में जाति' क्यों होनी चाहिए? अगर 'एक देश, एक बाजार, एक टैक्स' सही है तो 'एक देश, एक जाति' कैसे गलत है? कुछ दिन पहले सोशल मीडिया में अच्छी बहस छिड़ी हुई थी कि 'इस देश को कैशलेस इंडिया (Cashless India) बनाने की ज्यादा जरूरत है या फिर कास्टलेस इंडिया(Casteless India) बनाने की।?' मेरा भी यही सवाल है कि आखिर जातिविहीन भारत(Casteless India) बनाने की घोषणा कब होगी? मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार है।

सूरज कुमार बौद्ध
(लेखक भारतीय मूलनिवासी संगठन के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)


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