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वीरांगना रानी दुर्गावती की शहादत को देश ने क्यो भूला दिया गया?


वीरांगना रानीदुर्गावती जी की जयंती पर हम शत् शत् नमन करते हैं।
रानी दुर्गावती (5 अक्टूबर, 1524 – 24 जून, 1564)) भारत की एक वीरांगना थीं जिन्होने अपने विवाह के चार वर्ष बाद अपने पति दलपत शाह की असमय मृत्यु के बाद अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बैठाकर उसके संरक्षक के रूप में स्वयं शासन करना प्रारंभ किया।
देखिये यह वीडियो:

वीरांगना रानी दुर्गावती  (1524-1564)

भारत के इतिहासकारों के लिए गोंडवाना भू-भाग भारत के आदिवासी वीर सपूतों, महान नारियों की वीरगाथाओं का आलेखन इतिहास के पन्नों पर जरूर दुर्लभ हो सकता है. परन्तु गोंडवाना के आदिम जनजातीय ­­वंशज (गोंडवाना साम्राज्य) के अनेक योद्धाओं, राजा-महाराजाओं तथा कई वीर बालाओं से लोहा लेने वालों को उनकी अदम्य साहस और वीरता जरूर याद आई, जिन्होंने उनके सामने रणभूमि में घुटने टेके. आदिवासी समाज धन्य है, जिसने इतिहास में कई वीर योद्धाओं बिरसा मुंडा एवं वीर नारियों को जन्म दिया. जैसे- महारानी कमलावती, जाकुमारी हसला, रानी देवकुँवर, रानी तिलका, जयबेली रानी मोहपाल, रानी कमाल हीरो, रानी हिरई, रानी फूलकुंवर, रानी चमेली, वीरांगना सिंनगीदयी आदि. गोंडवाना की वीरांगनाएं वो माताएं है, जिनकी समृद्ध कर्मभूमि का नाम "गोंडवाना" रही है. इसी समृद्ध गोंडवाना भूमी की गर्भ से प्रतापी, विलक्षण, प्रतिभाशाली, संस्कारवान लोग और “भारत देश” पैदा हुए.

लोग अपने पूर्वजो की वीरगाथाओं को अपने समुदाय तथा समाज के इतिहास से पाया है, किन्तु गोंडवाना के उन पूर्वजों का जिन्हे इतिहास ने भूला दिया. यह तो इतिहासकरों की पराकाष्ठा का मिसाल है कि ऐसे पूर्वज, जिन्होंने भारत ही नही, दुनिया के पांच भू-खंडो में सदियों सदी तक अपने कर्म और कर्तव्य से मानवजाति को स्थायित्वता प्रदान किया, उन्हें उनकी धरा के इतिहास में ही गुमनाम बना दिया गया ! यदि युगान्तर में उनकी वीरता दिखाई भी गई तो दास-दस्यु, बंदर-भालू, दैत्य-दानव, राक्षस तथा बुराई के रूप में ! गोंडवाना के आदिकालीन पृष्ठभूमि में आदिवासियों के पूर्वजों के वंशज, गढ़मण्डला(जबलपुर म.प्र), जिसे गढ़ा मंडला भी कहा जाता है, की कर्मवती, धर्मवती, बलवती, रणवती, एवं रणगति प्राप्त करने वाली “वीरांगना रानी दुर्गावती” थी, जिनकी आज २४ जून को 452वीं पुन्यतिथि देश का आदिम मानव समाज प्रतिवर्ष की भांति मना रहा है.

विस्तृत गोंडवाना भू-भाग के प्रतापी राजाओं, रानियों के संबंध में कुछ-कुछ विदेशी इतिहासकारों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई, जिससे उनके इतिहास की कुछ झाकियां देखी जा सकी. विदेशी इतिहासकारों को गोंडवाना के मानव समाज, उनकी संस्कृति, बोली-भाषा, संस्कृति, साहस, वीरता आदि के बारे में जितनी समझ आई और जानकारी हासिल हो सकी, उन्होंने बखूबी सहेजा, जिसके कारण आज भारतीय मूलनिवासी समाज को उनके ऐतिहासिक पदचाप के निशां मिल सके.

एक झलक वीरांगना दुर्गावती पर:

अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला. दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया. इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।
अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका. दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया.
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ. 
अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं. महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था.

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है.
इस अदम्य साहस एंव वीरता को हम नमन करते है.

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