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आदिवासी चाकमा बौद्धों के साथ अरुणाचल प्रदेश में अन्याय

कृपया पूरी रिपोर्ट देखिये नजर अंदाज न करें , प्रत्येक को अरुणाचल प्रदेश के चाकमा बौद्धों के बारे में जानना चाहिए.


प्रशासन व वन विभाग द्वारा आदिवासी चकमा बौद्धों के घरों को ०८ मई २०१७ को तोड़ा गया और उन्हें जलाया गया. असहाय चकमा लोगों के घरों को JCB की सहायता से CRPF द्वारा अरुणाचल प्रदेश के प्रशासन व वन विभाग ने कैसे तोडा तथा जलाया है?

यह अरुणाचल प्रदेश के चेंग्लांग जिले के दियून सर्कल के अंतर्गत आने वाले राजनगर तथा ज्योत्सनापुर गाँवो के बीच पुनर्वासित बाढ़ पीड़ितों को वन विभाग तथा स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत द्वारा “भगाओ अभियान” है.

प्राकृतिक आपदा से प्रभावित लोगों के राहत के लिए केंद्र तथा राज्य सरकार के कुछ नियम कानून हैं किन्तु राज्य सरकार ने बाढ़ आपदा से प्रभावित असहाय चकमा आदिवासी लोगों के लिए कोई अन्य विकल्प मुहैया कराये बिना यह अमानवीय निर्णय लिया है.

इस संबंध में बाढ़ प्रभावितों द्वारा उच्च न्यायालय की ईटानगर बेंच में मामला फ़ाइल किया गया है. मामला अभी विचाराधीन है. अरुणाचल प्रदेश चकमा छात्र संघ (APCSU) ने भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) नयी दिल्ली में भी शिकायत दर्ज की है.

दरअसल मामला यह है कि इस बरसात में बाढ़ से २०० से अधिक चकमा लोग प्रभावित हुए. उन्हें अपनी संपत्ति समेत जमीन को खोना पड़ा. अब उनके पास न रहने को घर है न खाने को भोजन. इस प्राकृतिक आपदा के बाद इन २०० परिवारों को वन विभाग से अस्थायी आवास के लिए अनुमति मिली थी किन्तु गंदी राजनीति के कारण स्थानीय प्रशासन और वन विभाग द्वारा यह अमानवीय निर्णय आदिवासी चकमा बौद्धों के विरुद्ध लिया जा रहा है.

पीड़ितों ने कहा कि ;हमारे सामने चिंता का पहाड़ खड़ा हो गया है . मसलन अब हम कहाँ रहें और कहाँ जाएँ ? बिना घर और आय के हम कैसे जीवित रहेंगे ? मानवअधिकार कहाँ हैं ? न्याय कहाँ है ?

अरुणाचल प्रदेश सरकार हमारे अधिकारों से खेल रही है. हम पिछले पचास सालों से इस राजनीति के शिकार हैं. सक्षम डिग्रीधारी होने के बावजूद हमें सरकारी नौकरियां नहीं दी जाती. हमारी प्रतिभा की अरुणाचल प्रदेश में कोई कीमत नहीं है .

ऑल इंडिया चकमा सोशल फोरम  ने कहा कि समुदाय को पिछली करीब आधी सदी से नागरिकता के अधिकारों से वंचित रखा गया है और वह इसे लेकर हस्तक्षेप करें.
 उन्होंने बताया कि 1964-68 के दौरान करीब 15,000 चकमा तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के चटगांव पर्वतीय क्षेत्रों से भाग आए थे.

भारत आने के बाद वे तत्कालीन नॉर्थईस्टर्न फ्रंट एजेंसी :नेफा: में बस गए, जो इस समय अरूणाचल प्रदेश है.
उन्होंने ने दावा किया कि तब से उच्चतम न्यायालय के विशिष्ट निर्देशों के बावजूद अरूणाचल प्रदेश में रहने वाले एक भी चकमा प्रवासी को नागरिकता अधिकार नहीं दिए गए.

बाद में एक दूसरी रिट याचिका के बाद उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में भारतीय संघ और अरूणाचल प्रदेश सरकार को नागरिकता के आवेदनों पर ध्यान देने का निर्देश दिया.

आरोप लगाया गया कि नागरिकता के मानदंड पूरे करने के बावजूद नागरिकता देने के लिए किसी भी चकमा प्रवासी के आवेदन की सिफारिश नहीं की गयी.

इस कारण हम पूरे भारत में कहीं भी सरकारी नौकरी के पात्र नहीं रह जाते. इसी कारण बहुत से चकमा बच्चे ज्यादा पढ़ना नहीं चाहते. गरीब होने के कारण माँ-बाप भी शिक्षा पर खर्च नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि पढ़े-लिखे डिग्रीधारी होने के बावजूद इन्हें नौकरियां नहीं मिलने वाली है . हमारे क्षेत्र के स्कूलों की अवस्था भी खस्ता है. सारा फंड अधिकारी खा जाते हैं परिणामस्वरुप स्कूल की अवस्था ख़राब ही रहती है .

हमारी आवाज उठाने वाला हमारा कोई प्रतिनिधि भी अरुणाचल प्रदेश में नहीं है क्योंकि केवल 5% चकमा ही वोटर्स हैं जबकि ९५ % चकमा वोट नहीं दे सकते हैं. दुःख से कहना पड़ता है कि लोकतंत्र के सर्वोत्तम व आवश्यक वोटिंग के अधिकार को हमसे छीना जा रहा है .

हमारे समाज में कोई इतना पढ़ा-लिखा नहीं है जो हमारी लड़ाई लड़ पाए. इसीलिए अरुणाचल प्रदेश के लोग इसका नाजायज फायदा उठाते हैं. अतुल पी चकमा ने बताया कि मैं अपने बचपन के दिनों से देख रहा हूँ कि बहुत सारे भोले चकमा लोगों को मार डाला गया , उनके घर जला दिए गए . प्रशासन से किसी को न्याय नहीं मिला. यहाँ तक कि पुलिस भी हमारी रपट नहीं लिखती है. हमारी जिंदगी या मौत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती. जबसे थोड़े बहुत चकमा पढ़-लिख गए हैं और समाज के लिए लड़ने को तैयार हो रहे हैं तो अभी थोड़ी-बहुत परिस्थितियां बदल रही हैं.

8 मई 2017 की घटना ने भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त हमारे मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है. यह घोर अन्याय है. हमारे लोकतांत्रिक देश पर शर्मनाक धब्बा है. इस तरह की घटना की हमने अरुणाचल प्रदेश सरकार से जरा भी अपेक्षा नहीं थी. इस तरह बिना कोर्ट की नोटिस के वे हमारे घरों को तोड़ या जला कैसे सकते हैं जबकि मामला मानवधिकार आयोग तथा उच्च न्यायालय में विचाराधीन हो? मीडिया हमारी ख़राब अवस्था को दिखाता नहीं है .

हालाँकि हमने अभी तक न्याय की आशा तथा अच्छे भविष्य की संभावना छोड़ी नहीं है . हम अब भी कानून व्यवस्था का पालन कर रहे हैं . हम कोशिश कर रहे हैं कि संविधान के अनुसार हमारे अधिकार हमें मिल जाएँ. सबके प्रति हमारे मन में सम्मान है .

हम नहीं जानते कि किससे न्याय की आशा रखें? जिन्दा रहने के लिए कहाँ जाएँ ? हमारे बुरी अवस्था पर संसद में कोई क्यों चर्चा नहीं करता ?

हमारे चकमा लोगों की दुर्दशा कभी चैन से सोने नहीं देती है. भविष्य का डर सताता है . हम बिना अधिकारों के कैसे जी पाएंगे ?

भारतीय मानव अधिकार आयोग ही नहीं बल्कि अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी इस मामले में हस्तक्षेप जरूर करना चाहिए . मीडिया के अभाव में हमारी ख़राब अवस्था को कोई नहीं जान पाता.

क्या आप हमारे जीवन व मौत के इस मुद्दे को राष्ट्रीय व् अन्तराष्ट्रीय पटल पर उठाने में सहायता करेंगे?

यह हृदय विदारक मानवीय प्रश्न अरुणाचल प्रेदेश के पीड़ित चकमा जो मूलतः बौद्ध है और आदिवासी भी है उन्होंने किया? WLBS इस मुद्दे को सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रीय पटल पर पहुंचाने के लिए अब संकल्पित है.
इस विषय की सम्पूर्ण जानकारी हमे अतुल पी चकमा द्वारा प्राप्त हुई.





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