क्या आरक्षण से जातीय संघर्ष उत्पन्न होता है?
आरक्षण से जातीय संघर्ष की बात करने वाले ही अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ों के सबसे कट्टर एवं खतरनाक दुश्मन है।
क्योंकि वे इन शोषित वर्गों को किसी भी क्षेत्र में स्वयं से ज्यादा बढ़कर नही देखना चाहते है।ऐसे लोगो की छाती पर साँप लोटने लग जाते है,जब किसी शोषित वर्ग को वे उच्च पद पर बैठा देखते है और इन्हें जब उसके सामने उपस्थित होना पड़ता है, क्योंकि ऐसे अवसर पर उनके दिमाग मे वही सड़ा-गला विचार उत्पन्न हो जाता है कि जो व्यक्ति कल तक हमारे पांव की जूती था,आज वह हमारे सामने उच्च पद पर कैसे विराजमान है?
कल तक जो हमारी ठोकरों में लुढकता था,वही आज हमें आदेश कैसे दे रहा है? बस मूल कारण यही है जातीय संघर्ष उत्पन्न होने का।
अन्य कोई कारण नही है, अन्य तमाम बातें तो इनकी कोरी बकवास मात्र है।
आरक्षण का विरोध करने वालो को इस विषय मे एक बात पर स्वयं अच्छी तरह से ठंडे दिलो दिमागों से विचार करने की जरूरत है।
वह यह है कि जब उनकी दृष्टि में आरक्षण का होना अच्छी बात नही है। इसे समाप्त कर देना चाहिए,तो फिर वे स्वयं अपने लिए आरक्षण की मांग क्यों कर रहे है?
दरअसल ऐसे लोग शासन - प्रशासन के उच्च पदों पर अपना ही एकाधिकार करना चाहते है।ऐसे लोगो का एकमात्र दर्द यही है कि शासन - प्रशासन के उच्च पद पर हमारे ही अधिकार में रहे,अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ों के नही इन पर हुकूमत करने का अधिकार हमारा है, इनका हम पर कतई नही।
हम ही इन पर रुआब झाड़ सकते है। इनका हमारी हाँ में हाँ मिलने के अलावा कोई दूसरा कार्य नही होना चाहिए। इस विकृत मानसिकता वाले लोगो को दोगले भी कहा जाए,तो कोई बुरी बात नही होगी,क्योंकि एक तरफ जिस मुंह से ये आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते है, उसी मुंह से ये उसे अपने लिए लागू करने की भी बात करते है।
द्वारा-दुर्गेश यादव"गुलशन"
(लेखक भारतीय मूलनिवासी संगठन मध्यप्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष है)।
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