संघ बाबासाहेब अंबेडकर की विचारधारा से प्रेम करता है?
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ शुरू से बाबासाहेब अम्बेडकर की हिन्दू धर्म की आलोचना के कारण उनसे सख्त नफरत करता था.
इस तथ्य को साबित करने के लिए मैंने ऐतिहासिक साक्ष्य सन्दर्भ के तौर पर आपके समक्ष पेश करने का प्रयास किया है.
Buy Samsung Galaxy J7 Prime 16GB from Snapdeal जैसे:- 1). 1932 की पूना संधि में मोहन दास करमचन्द गाँधी का विरोध संघ ने क्यो नही किया?
जबकि बाबासाहेब अम्बेडकर मजबूरी में पुना संधि में हस्ताक्षर कर रहे थे.
उस वक्त कांग्रेस के नेता अम्बेडकर जी की माँग अछूतो को प्रथक निर्वाचन का अधिकार हो इस पर उग्र विरोधी थे.
संघ क्या अम्बेडकर की इस माँग के साथ था?
2). एनिहिलेशन ऑफ कास्ट पहली बार 1936 में छपी थी उसी का अंश जो एक भाषण है उसके आखिरी हिस्से में बाबासाहेब बताते हैं कि हिंदू व्यक्ति जाति को इसलिए नहीं मानता कि वह अमानवीय है या उसका दिमाग खराब है. वह जाति को इसलिए मानता है कि वह बेहद धार्मिक है. जाति को मान कर वे गलती नहीं कर रहे हैं. उनके धर्म ने उन्हें यही सिखाया है. उनका धर्म गलत है, जहां से जाति का विचार आता है. इसलिए अगर कोई हिंदू जाति से लड़ना चाहता है तो उसे अपने धार्मिक ग्रंथों से टकराना होगा. बाबासाहेब भारत के मानसिक मरीज को उपचार बताते हैं कि शास्त्रों और वेदों की सत्ता को नष्ट करो. यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि शास्त्रों का मतलब वह नहीं है, जो लोग समझ रहे हैं. दरअसल शास्त्रों का वही मतलब है जो लोग समझ रहे हैं और जिस पर वे अमल कर रहे हैं. क्या संघ हिंदू धर्म शास्त्रों और वेदों को नष्ट करने के लिए तैयार है?
3). बाबासाहेब अम्बेडकर ने ‘हिन्दू कोड बिल’ का मसौदा तैयार किया. इसे संसद में पेश करते वक़्त उन्होंने कहा था, ‘मसौदे का मक़सद, हिन्दू महिलाओं को बराबरी का हक़ देना और जातिगत असमानता को ख़त्म करना है. हिन्दू विधवाओं और बेटियों को भी सम्पत्ति में पुरुषों जैसा ही हिस्सा मिलना चाहिए.’ तब तक पैतृक सम्पत्ति पर बेटों का ही अधिकार हुआ करता था. यदि महिलाओं को पति के दुर्व्यवहार, ज़्यादतियों या घातक बीमारियों की वजह से अलग रहना पड़े तो उसे गुज़ारा भत्ता का अधिकार नहीं था. अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं थी. तलाक का हक़, पति-पत्नी दोनों को नहीं था. बहुविवाह निषेध नहीं था और किसी भी जाति के व्यक्ति को गोद लेने की छूट नहीं थी. बाबासाहेब अम्बेडकर इसके सख़्त समर्थक थे. उनका ध्येय लैंगिक समानता का था. संघ ने 11 दिसम्बर 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर बड़ी रैली करके ‘हिन्दू कोड बील' का ज़बरदस्त विरोध किया इसमें तत्कालीन साधु-सन्तों और शंकराचार्यों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी ताक़त से उनके साथ था. बाबासाहेब अम्बेडकर के पुतले जलाये गये. स्वामी करपात्रीजी महाराज ने अम्बेडकर को जाति-सूचक भद्दी-भद्दी ग़ालियाँ देकर अपमानित किया. मनु और याज्ञवल्यक्य स्मृतियों का वास्ता देकर ‘हिन्दू कोड’ की ख़ूब धज्जियाँ उड़ायी गयीं.
संघ ने इस मानवीय समानता के सिद्धान्त का विरोध क्यो किया?
4). 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षा भूमि पर 5 लाख लोगों के साथ विश्व को मानवता का सन्देश देने वाले तथागत बुद्ध के धम्म की शरण को विश्वविभुति डॉ. बाबासाहेब ने आत्मसात किया, और उपस्थित अपने अनुयायियो को षड्यंत्र पूर्वक धर्म के नाम गुलामी की बेड़ी, जंजीर जिसे धर्म के ठेकेदारो ने शुद्र नाम दिया था उसे हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ दिया था.
स्वंय को बौद्ध अर्थात मानवतावादी व्यक्ति बनने का संकल्प लिया था.
प्रश्न उठता है कि संघ के नीति निदेशक क्या 22 प्रतिज्ञाओं को नही जानते?
आरएसएस बौद्ध धम्म हिन्दू धर्म का अंग कह कर भ्रमित करता है जबकि यह हिन्दू धर्म के खिलाफ श्रमणों के विद्रोह का प्रतीक है और हिन्दू धर्म की खूनी प्रतिक्रांति ने बौद्ध धम्म को इसकी जन्मभूमि से मिटा दिया था.
अब जबकि सोशल साइट्स पर बाबासाहेब अम्बेडकर के आंदोलन को जनांदोलन बनते देख सिर्फ संघ ही नही बल्कि देश की सभी राजनैतिक दल इसे अपने पक्ष में करने के प्रयास में है. बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रति प्रेम मुंह में राम बगल में छुरी की कहावत को चरितार्थ करता है इसलिए नये-नये कार्यक्रम एंव आयोजन चलाये जा रहे है जैसे अम्बेडकर जयंती, स्मारक और सामाजिक समरसता नामक आयोजन कर बाबासाहेब आंबेडकर का भगवाकरण करने की रणनीति बनाई गई है.
महापुरुष को किसी जाति, धर्म या देश तक सीमित नही किया जा सकता है किन्तु उस महापुरुष के मौलिक विचारो, सिद्धांतो को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाये तब यह चिंता की बात है और यह घोर षड्यंत्र का प्रमाण है.
बुद्ध, कबीर, रविदास, गाडगे महाराज के बाद अब विश्वविभुति डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर को भी अवतार या सन्त बना कर उनके मानवतावादी विचारो को खत्म करने की रणनीति क्रियान्वयन किया जा रहा है किन्तु नागपुर की दीक्षा भूमि में शान से स्थापित पटल जिसमे 22 प्रतिज्ञाएँ दर्ज है जिसे भारत रत्न डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर अपने लाखो अनुयायियो को दी थी.
हजारो साहित्य है जो इस महापुरुष के जीवन संघर्ष की गवाही दे रहे है उसे कैसे नष्ट किया जायेगा?
जबकि भीम सैनिको की हजारो नही लाखो की फौज सोशल मीडिया में सक्रिय है जो अम्बेडकरवाद के प्रचार-प्रसार के लिए 24 घण्टे सक्रिय है.
देश का प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मनुवादी है तो क्या हुआ अब हमारे पास सोशल मीडिया है जो संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का रचनात्मक एंव सकारात्मक माध्यम है.
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जबकि बाबासाहेब अम्बेडकर मजबूरी में पुना संधि में हस्ताक्षर कर रहे थे.
उस वक्त कांग्रेस के नेता अम्बेडकर जी की माँग अछूतो को प्रथक निर्वाचन का अधिकार हो इस पर उग्र विरोधी थे.
संघ क्या अम्बेडकर की इस माँग के साथ था?
2). एनिहिलेशन ऑफ कास्ट पहली बार 1936 में छपी थी उसी का अंश जो एक भाषण है उसके आखिरी हिस्से में बाबासाहेब बताते हैं कि हिंदू व्यक्ति जाति को इसलिए नहीं मानता कि वह अमानवीय है या उसका दिमाग खराब है. वह जाति को इसलिए मानता है कि वह बेहद धार्मिक है. जाति को मान कर वे गलती नहीं कर रहे हैं. उनके धर्म ने उन्हें यही सिखाया है. उनका धर्म गलत है, जहां से जाति का विचार आता है. इसलिए अगर कोई हिंदू जाति से लड़ना चाहता है तो उसे अपने धार्मिक ग्रंथों से टकराना होगा. बाबासाहेब भारत के मानसिक मरीज को उपचार बताते हैं कि शास्त्रों और वेदों की सत्ता को नष्ट करो. यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि शास्त्रों का मतलब वह नहीं है, जो लोग समझ रहे हैं. दरअसल शास्त्रों का वही मतलब है जो लोग समझ रहे हैं और जिस पर वे अमल कर रहे हैं. क्या संघ हिंदू धर्म शास्त्रों और वेदों को नष्ट करने के लिए तैयार है?
3). बाबासाहेब अम्बेडकर ने ‘हिन्दू कोड बिल’ का मसौदा तैयार किया. इसे संसद में पेश करते वक़्त उन्होंने कहा था, ‘मसौदे का मक़सद, हिन्दू महिलाओं को बराबरी का हक़ देना और जातिगत असमानता को ख़त्म करना है. हिन्दू विधवाओं और बेटियों को भी सम्पत्ति में पुरुषों जैसा ही हिस्सा मिलना चाहिए.’ तब तक पैतृक सम्पत्ति पर बेटों का ही अधिकार हुआ करता था. यदि महिलाओं को पति के दुर्व्यवहार, ज़्यादतियों या घातक बीमारियों की वजह से अलग रहना पड़े तो उसे गुज़ारा भत्ता का अधिकार नहीं था. अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं थी. तलाक का हक़, पति-पत्नी दोनों को नहीं था. बहुविवाह निषेध नहीं था और किसी भी जाति के व्यक्ति को गोद लेने की छूट नहीं थी. बाबासाहेब अम्बेडकर इसके सख़्त समर्थक थे. उनका ध्येय लैंगिक समानता का था. संघ ने 11 दिसम्बर 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर बड़ी रैली करके ‘हिन्दू कोड बील' का ज़बरदस्त विरोध किया इसमें तत्कालीन साधु-सन्तों और शंकराचार्यों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी ताक़त से उनके साथ था. बाबासाहेब अम्बेडकर के पुतले जलाये गये. स्वामी करपात्रीजी महाराज ने अम्बेडकर को जाति-सूचक भद्दी-भद्दी ग़ालियाँ देकर अपमानित किया. मनु और याज्ञवल्यक्य स्मृतियों का वास्ता देकर ‘हिन्दू कोड’ की ख़ूब धज्जियाँ उड़ायी गयीं.
संघ ने इस मानवीय समानता के सिद्धान्त का विरोध क्यो किया?
4). 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षा भूमि पर 5 लाख लोगों के साथ विश्व को मानवता का सन्देश देने वाले तथागत बुद्ध के धम्म की शरण को विश्वविभुति डॉ. बाबासाहेब ने आत्मसात किया, और उपस्थित अपने अनुयायियो को षड्यंत्र पूर्वक धर्म के नाम गुलामी की बेड़ी, जंजीर जिसे धर्म के ठेकेदारो ने शुद्र नाम दिया था उसे हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ दिया था.
स्वंय को बौद्ध अर्थात मानवतावादी व्यक्ति बनने का संकल्प लिया था.
प्रश्न उठता है कि संघ के नीति निदेशक क्या 22 प्रतिज्ञाओं को नही जानते?
आरएसएस बौद्ध धम्म हिन्दू धर्म का अंग कह कर भ्रमित करता है जबकि यह हिन्दू धर्म के खिलाफ श्रमणों के विद्रोह का प्रतीक है और हिन्दू धर्म की खूनी प्रतिक्रांति ने बौद्ध धम्म को इसकी जन्मभूमि से मिटा दिया था.
अब जबकि सोशल साइट्स पर बाबासाहेब अम्बेडकर के आंदोलन को जनांदोलन बनते देख सिर्फ संघ ही नही बल्कि देश की सभी राजनैतिक दल इसे अपने पक्ष में करने के प्रयास में है. बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रति प्रेम मुंह में राम बगल में छुरी की कहावत को चरितार्थ करता है इसलिए नये-नये कार्यक्रम एंव आयोजन चलाये जा रहे है जैसे अम्बेडकर जयंती, स्मारक और सामाजिक समरसता नामक आयोजन कर बाबासाहेब आंबेडकर का भगवाकरण करने की रणनीति बनाई गई है.
महापुरुष को किसी जाति, धर्म या देश तक सीमित नही किया जा सकता है किन्तु उस महापुरुष के मौलिक विचारो, सिद्धांतो को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाये तब यह चिंता की बात है और यह घोर षड्यंत्र का प्रमाण है.
हजारो साहित्य है जो इस महापुरुष के जीवन संघर्ष की गवाही दे रहे है उसे कैसे नष्ट किया जायेगा?
जबकि भीम सैनिको की हजारो नही लाखो की फौज सोशल मीडिया में सक्रिय है जो अम्बेडकरवाद के प्रचार-प्रसार के लिए 24 घण्टे सक्रिय है.
देश का प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मनुवादी है तो क्या हुआ अब हमारे पास सोशल मीडिया है जो संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का रचनात्मक एंव सकारात्मक माध्यम है.
लेखक: सुरेश पासवान ( दर्शन शास्त्र में स्नातक एंव राष्ट्रीय महासचिव, वी लव बाबासाहेब सोशल सोसायटी) |
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